
विरोध व समर्थन वाले आंदोलन से भूरैयतों में हो रहा विश्वास खत्म, कंपनी धीरे-धीरे जमा रही है अपना पैर
न्यूज स्केल संवाददाता
टंडवा (चतरा)। कभी विरोध तो कभी समर्थन की नीति वाले आंदोलन जीवियों व कार्पाेरेट मैनेजमेंट के धनशोधन तरकीब का अहम हिस्सा बन चुका है टंडवा प्रखंड में। दूसरी ओर आंदोलन जीवियों के क्षण-क्षण बदलते रंगत से आमजनों में बड़ी दुविधा की स्थिति दिखाई देती है। कमोबेश, वृंदा-सिसई कोल परियोजना क्षेत्र में यही हालात बने हैं। करीब डेढ़ दशक पूर्व अभिजित नामक कोल खनन कंपनी द्वारा भू-अधिग्रहण के दौरान महज 5 से 6 लाख प्रति एकड़ के हिसाब से जमीने ली गई। मजे की बात तो यह है कि तब रैयतों के पास भुगतान का आधा बकाया रहने के बावजूद जमीनों की रजिस्ट्री व म्यूटेशन तक कराकर उनके साथ बड़ा छलावा किया गया। खैर समय का चक्र वहां तेजी से बदला दो अन्य कंपनियों को ब्लॉक आवंटन प्रक्रिया से गुजरने के बाद अब डालमिया कंपनी परियोजना के विस्तार में जुटी है। वहीं उक्त डेढ़ दशक के अंतराल में आंदोलनजीवि अपने दोधारु नीतियों को त्याग नहीं पाये जिससे अब उनके खोखले सब्जबाग से लोगों का धीरे-धीरे मोहभंग होने लगा है। कंपनी के विरोध में चंद माह पहले जोरदार नारेबाजी, पुतला दहन, दीवार लेखन जैसे तरकीबों को अपनाकर ग्रामीणों को अपने पाले में करने के बाद कंपनी के दरवाजों को आंदोलनजीवी जाकर चूमने लगे। विश्वस्त सूत्रों की मानें तो पर्व, त्यौहारों व सांस्कृतिक आयोजनों में ग्रामीणों के नाम पर प्रबंधन से भरपूर चंदा लेकर डकार गये। जबकि कंपनी प्रबंधन डायरेक्ट दर्जनों भू-रैयतों से संपर्क साधकर विस्थापित-प्रभावित व कुल अधिगृहित होने वाले भूखंडों के लगभग 75 प्रतिशत भूदाता क्षेत्र खैल्हा, कटाही-मिश्रौल व किसुनपुर को अपने विश्वास में लेने सफल रहे। वहीं इसकी भनक लगते हीं इन दिनों आंदोलन जीवियों के सुर विरोध के दिखाई दे रहे हैं। वहीं कंपनी बैठे-बैठे रैयतों के आपसी उलझनों की तमाशा मजे से देख रही है। आंदोलनजीवी जहां अपने दोधारु रवैये के कारण भूरैयतों का विश्वास खोते जा रहे हैं, वहीं कंपनी अपने तमाम नीतियों को सार्वजनिक करने से बचते हुवे भी भूरैयतों को अपने पाले करने में धीरे-धीरे सफल हो रही है। ग्रामीणों व भूरैयतों को अभी तक स्पष्ट नहीं है कि मुआवजा दर कितना होगा, बावजूद लोग अपनी कागजातों को पहुंचा रहे हैं।