झारखण्ड /गुमला -किसी भी राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय राजनीतिक दल के आकार में अधिक से अधिक विस्तार हो यह उस दल की पहली प्राथमिकता होती है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किसी राजनीतिक दल के आकार में यदि सिकुड़न होती जाय तो यह उस दल के औचित्य पर ही प्रश्न खड़ा करता है। इस क्रम में देश के सबसे पुरानी राजनीतिक दल कांग्रेस की चर्चा प्रासंगिक है। साल 2014 जब से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता संभाली है देश में कांग्रेस के जनाधार में त़ो गिरावट आयी ही है इसके सिपहसालार भी एक एक कर पार्टी का दामन छोड़ते जा रहे हैं । इस कड़ी में गुलाम नबी आजाद, पूर्व सी एम कैप्टेन अमरिंदर सिंह, एन.बिरेन सिंह, नारायण राणे, एस. एम. कृष्णा, शंकर सिंह बाघेला, मिलिंद देवड़ा, बाबा सिद्धीकी, रीता बहुगुणा जोशी, ज्योतिरादित्य सिंधिया जितिन प्रसाद, सुष्मिता देव, प्रियंका चतुर्वेदी, आर.पी.एन. सिंह,हेमंत विस्वा शर्मा, सुनील जाघड़ तथा आचार्य प्रमोद कृष्णम जैसे नामचीन नेता हैं। अभी हालिया झारखंड में सांसद गीता कोड़ा का तो कांग्रेस से मोहभंग हुआ ही जामताड़ा के जिला कांग्रेस कमिटी का भाजपा में शिफ्ट होना पार्टी के अंतर्कलह को हीं बयां करता है। बड़ा सवाल ये है कि आलाकमान अपनी नेताओं को क्यों नहीं संभाल पा रहा। वास्तविकता ये है कि नेताओं के बीच आपसी खींचतान इतना गंभीर है कि वे पार्टी तो क्या सरकार को भी खतरे में डालने से नहीं चूकते। अभी हाल हीं प्रदेश में पर्याप्त बहुमत के बावजूद हिमाचल में कांग्रेस उम्मीदवार अभिषेक मनु सिंधवी को राज्यसभा के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।गौरतलब है कि कांग्रेसी विधायकों के क्रॉस वोटिंग के बाद उत्तर भारत में
कांग्रेस की इकलौती राज्य सरकार के भविष्य पर भी संकट के बादल गहराने लगे थे। इतना जरुर है कि इस प्रकार के संकट या फिर किसी भी दिग्गज के कांग्रेस से पलायन करने के बाद कांग्रेसी इसका दोष भाजपा पर शिफ्ट करना नहीं भूलते। जबकि भाजपा के बढ़ते जनाधार, भाजपा की लोककल्याणकारी नीतियों का प्रतिफल है कि कांग्रेस सहित अन्य दलों के नेताओं का रुझान भाजपा के प्रति बढ़ा है। वास्तविकता यह भी है कि कांग्रेस के अंदर हीं कई कांग्रेस खड़ी हो गई है। पार्टी का हर नेता खुद को पार्टी से बड़ा समझने लगे हैं।
आगे दो माह के भीतर देश में लोकसभा के चुनाव होने हैं।ऐसे समय में बड़े नेताओं तथा उनके समर्थकों का पार्टी से मोहभंग होना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है। वैसे भी आजादी के बाद यह पहला मौका है जब विपक्ष पूरी तरह बिखरा हुआ और खास तौर पर कांग्रेस उत्साहहीन है। मर्म ये है कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में हीं बिखराव है।बड़े नेताओं में उत्तदायित्व बोध का सर्वथा अभाव है।कहने को तो मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष हैं परन्तु पार्टी की कमान अभी भी उनसे दूर है। भीतरखाने में असंतोष पनपने का यही सबसे बड़ा वजह भी है। लबोलुआब ये कि कांग्रेस को फिर से धारदार बनाने के लिए इस दल के नेताओं को पारिवारिक संस्कृति से उबरना हीं होगा अन्यथा दल की सिकुड़न यूं हीं जारी रहेगी।